गुरुदेव सियाग द्वारा लिखित सभी दिव्य लेख पढ़ें
जब प्राणी संसार में जन्म लेता है तो वह सांसारिक ज्ञान से पूर्ण रूप से अनभिज्ञ होता है। वह सर्वप्रथम अपने माता पिता से भौतिक जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है, उसके प्रथम गुरु उसके माता पिता होते हैं।
मैं, मानव की एक मात्र सत्ता में ही विश्वास रखता था, क्योंकि प्रारम्भ से ही मैं, नौकरी में मजदूर संगठन में काम करने वाले व्यक्तियों के सम्पर्क में आ गया था। अतः मेरा झुकाव राजनीति की तरफ अधिक होता गया। मेरा मूल रूप से यह स्वभाव रहा है कि मैं अपनी मान्यताओं पर हमेशा अडिग रहता हूँं।
मैं देख रहा हूँ, इस युग के मानव जब कबीर और नानक की ‘नाम अमल’ और ‘नाम खुमारी’ की बात सुनते हैं, या पढ़ते हैं तो उन्हें इस बात पर बिल्कुल ही विश्वास नहीं होता। अपने ज्ञान के अनुसार वे इस बात को ईश्वर के लिए श्रद्धा से काम में लिए हुए अतिशयोक्ति अलंकार के अतिरिक्त कुछ भी मानने को तैयार नहीं।
मनुष्य योनि, प्राणधारियों में सर्वोत्तम योनि है। मनुष्य शरीर, ईश्वर का सर्वोत्तम स्वरूप है। केवल इसी योनि में ईश्वर की प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार संभव है और इसके बिना मोक्ष असम्भव है।
इस प्रकार प्रथम आत्म जागृति ही कठिन है। जिस प्रकार एक दीपक के प्रज्वलित होने पर दीपों से दीप जलाने में कोई देर नहीं लगती। इसी प्रकार एक जलता दीपक असंख्य दीपक जला कर संसार का अन्धेरा खत्म कर सकता है। एक चेतन गुरु ही संसार के लिए पर्याप्त है।
भारत सदियों तक गुलाम रहा, इसलिए इस पवित्र भूमि पर अंधकार ठोस बनकर जम गया है। वैदान्तियों को छोड़कर सम्पूर्ण विश्व के धर्मों के अनुयाइयों का विकास अभी द्वैत भाव तक ही हुआ है।
शब्द की उत्पति मात्र उस परमसत्ता की देन है। हर अक्षर किसी न किसी शक्ति का स्वरूप है। सारी शक्तियाँ मनुष्य के शरीर में स्थित हैं। हर शक्ति का उपयुक्त स्थान है।
गुरु-शिष्य परम्परा में दीक्षा का, एक विधान है। सभी प्रकार की दीक्षाओं में “शक्तिपात – दीक्षा” सर्वोत्तम होती है। इसमें गुरु अपनी इच्छा से, चार प्रकार से शिष्य की शक्ति (कुण्डलिनी ) को चेतन करके सक्रिय करता है- 1) स्पर्श से 2) दृष्टि मात्र से 3) शब्द (मंत्र) से 4) संकल्प मात्र से भी.
भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के 10 वें अध्याय के 39 वें श्लोक में स्पष्ट कहा है: यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥10:39॥
इस समय भारत में आध्यात्मिक जगत् में पूर्ण रूप से अन्धकार है। जब तक भारत का आम नागरिक अपनी इस कमजोरी को दिल से स्वीकार करके दूर करने का सामूहिक प्रयास प्रारम्भ नहीं करता है, यह भयंकर अन्धकार मिटने वाला नहीं है।
इस युग में आध्यात्मिक जीवन की व्याख्या बड़े विचित्र ढंग से की गई है। इन मन घड़न्त और कृत्रिम जीवन मान्यताओं के कारण ही इस युग का मानव अध्यात्मवाद को निरर्थक और कोरा ढोंग मानता है। यही कारण है कि इस युग में धर्म का अधिक ह्रास हुआ है।
आध्यात्मिक चेतना ईश्वरीय शक्ति के प्रयास से फैलती है। इसमें मानवीय बुद्धि द्वारा किया गया प्रयास सार्थक सिद्ध नहीं हो सकता। मानवीय प्रयास को अधिक से अधिक वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित प्रचार से अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
इस समय संसार भर के सभी धर्मों के धर्माचार्यों की एक जैसी ही स्थिति है। सभी लोग पहले के अवतारों, पैगम्बरों और संतों का गुणगान करते हैं।
ये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपनी चेतन और अचेतन वस्तुओं सहित एक दिव्य शब्द से बना है। दुनियां के सभी धर्मों में कितनी भी विभिन्नताएं हों पर एक बात पर सभी एकमत हैं कि इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक दिव्य शब्द से हुई है।
मैं प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुका हूँ कि मैंने कभी किसी धार्मिक ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया। मुझे जो कुछ भी प्राप्त हुआ, उसमें किसी प्रकार का मानवीय प्रयास या बुद्धि का लेशमात्र भी सहयोग नहीं रहा।
हम देख रहे हैं कि संसार की हर वस्तु नाशवान है। हमारे सभी संत कह गये हैं- वह अजर अमर है। उसकी प्राप्ति के बिना परम शान्ति असम्भव है।
मनुष्य जीवन में क्रमिक विकास के अनुसार ही कार्य करने के नियम निर्धारित किये गये हैं। शारीरिक और बौद्धिक विकास को ध्यान में रखते हुए सम्पूर्ण जीवन को चार भागों में बाँटा है बह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
'बाइबल का यह आखिरी हिस्सा वास्तव में बाइबल का प्राण है। सेंट जाॅन एक बहुत बड़े महान् संत थे। वे यीशु के मुक्तिदाता सद्गुरु थे। जिस प्रकार हमारा इतिहास बताता है कि भगवान् श्री राम और श्रीकृष्ण को भी गुरु धारण करने पड़े थे।
संसार के सभी जीव धारियों में मनुष्य योनि सर्वोत्तम है। मनुष्य योनि के द्वारा ही जीव मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। यह योनि एक ऐसा संगम है, जहाँ से अगर जीव अच्छे कर्म करता है तो निरन्तर ऊपर उठता हुआ, निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त कर लेता है और यदि इस संगम से मनुष्य बुरे कर्मों द्वारा पतन की ओर बढ़ना प्रारम्भ कर देता है तो फिर उसे चौरासी लाख योनियों के भोग के बाद फिर मनुष्य योनि मिलती है।
हमारे धर्मशास्त्रों में ‘गुरु’ की बहुत महिमा गाई गई है। गुरु का पद ईश्वर से भी बड़ा माना गया है। इसलिए वेदान्त धर्म को मानने वाले, आजकल संसार के लोग जिन्हें हिन्दू कह कर संबोधित करते हैं, गुरु शिष्य-परम्परा को बहुत महत्त्व देते हैं। हमारी इसी मान्यता के कारण कुछ चतुर लोगों ने इस पद पर एकाधिकार कर लिया है। धर्म और गुरुपद का जितना दुरुपयोग इस युग में हो रहा है, आज तक कभी नहीं हुआ।
अगर मनुष्य सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी है तो उसका सीधा सम्पर्क अपने ही शरीर स्थित आत्मा और परमात्मा तत्त्व से है। यह तत्त्व ही संसार के सर्वभूतों के कारण हैं।
महर्षि श्री अरविन्द ने घोषणा की थी कि 'भारत ही भगवान् को धरती पर लायेगा।' महर्षि श्री अरविन्द ने कहा था कि अंधकार ठोस बनकर जम गया है, अब संतों से शांति असंभव है।
मैंने जो कुछ पिछले पृष्ठों में लिखा है, वह पूर्ण रूप से मेरी प्रत्यक्षानुभूति पर आधारित है। इस समय संसार में आध्यात्मिक जगत् में जो वस्तुस्थिति चल रही है, उसका और सच्चाई का तुलनात्मक वर्णन करने के लिए मुझे विवश होकर आलोचनात्मक शैली का सहारा लेना पड़ा।
मैं चेतना के सर्वोच्च शिखर से, अर्थात् असीम ऊँचाई से नीचे की तरफ छिटका।एक आठ-नौ माह के बालक के रूप में ऊपर की तरफ मुँह किए हुए बहुत लम्बे समय तक नीचे की तरफ चलता रहा। निरन्तर एक भय लग रहा था कि जमीन पर गिरते ही, हड्डी-पसली चूर-चूर हो जाएगी।
इस समय संसार में केवल भौतिक सुख को ही संसार का मानव आनन्द की संज्ञा दे रहा है। आनन्द और भौतिक सुख में रात और दिन का अन्तर है। आनन्द निरन्तर जीवन भर एक ही स्थिति में रहता है, परन्तु सुख की स्थिति निरन्तर बदलती रहती है।
संसार की हर वस्तु नाशवान है, परन्तु ईश्वर भक्ति का फल कभी भी नष्ट नहीं होता है। वह हर जन्म में निरन्तर बढ़ता ही जाता है। इसके बारे में अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से पूछा -
ऊपर से होने वाले अवतरण तथा उसे क्रियान्वित करने की इस प्रक्रिया में सबसे प्रधान बात है, स्वयं अपने ऊपर पूर्ण रूप से निर्भर न करना, बल्कि पथ प्रदर्शक पर निर्भर करना और जो कछ घटित हो उस पर विचार करने, मत देने और निर्णय करने के लिए उन्हें बतलाना
संसार आवागमन का चक्कर है। इस सम्बन्ध में भगवान् ने गीता के 15वें अध्याय में स्पष्ट करते हुए कहा है:
अन्धेरा और उजाला दो बेमेल वस्तुएँ हैं। ये दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। प्रकाश निर्भयता, नया जोश और चेतनता प्रदान करता है, जबकि अन्धेरा भय, निराशा और अचेतनता का प्रतीक है। दोनों एक दूसरे से विपरीत गुण धर्म की वस्तुएँ हैं।
संसार का कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो दोषयुक्त न हो। हर काम में गुण और दोष ऐसे लिपटे रहते हैं कि उनको अलग करना असम्भव है। इस प्रकार संसार में विचरण करने वाला मानव पाप से बच ही नहीं सकता है।
इस समय संसार भर के सभी धर्मों के धर्माचार्य केवल प्रदर्शन, शब्दजाल, तर्कशास्त्र और अन्धविश्वास के सहारे लोगों को अध्यात्मवाद सिखा रहे हैं। शब्दजाल और तर्कशास्त्र के सहारे धर्म की व्याख्या इस प्रकार तोड़-मरोड़ करके कर रहे हैं
गीता के पाँचवे अध्याय में अर्जुन ने भगवान् से पूछा: सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
ईश्वर की आराधना से संसार का हर सुख प्राप्त हो सकता है तथा हर प्रकार के कष्ट से छुटकारा मिल सकता है।
आज भारत में जितनी तामसिकता है, उतनी किसी युग में नहीं रही। आज देश में जितना अविश्वास है, उतना पहले कभी नहीं रहा
संसार की यह कहावत कि ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, पूर्ण सत्य है।
उत्थान - पतन के प्रकृति के अटल सिद्धांत के कारण आज योग-दर्शन लोप प्रायः हो चुका है, जबकि सांख्य-दर्शन (भौतिक विज्ञान) ने बहुत अधिक तरक्की कर ली है।
वैदिक धर्म अर्थात् हिन्दू-धर्म में 'गुरु का पद', ईश्वर से भी महान् माना गया है। इस संबंध में गुरुगीता में कहा हैः गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
भगवान ने उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट कर दिया है कि ईश्वर सर्वभूत प्राणियों के शरीर रूपी यन्त्र में आरूढ़ होकर, सब को भ्रमाता हुआ, अपनी इच्छा से चला रहा है।
कलियुग के गुणधर्म के कारण संसार के सभी धर्मों के शान्ति, प्रेम, सहयोग, अहिंसा, भ्रातृभाव, मानवता आदि के सिद्धान्त, जितने आज प्रभावहीन हुए हैं, अतीत में कभी नहीं हुए।
संसार भर के प्राणी जो कुछ करते आ रहे हैं और आगे किस को क्या करना है, यह सब पूर्व निश्चित है।
संसार का हर परिवर्तन पूर्व निर्धारित है । इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी का जन्म से मृत्यु पर्यन्त सारा जीवन पूर्व निर्धारित व्यवस्था द्वारा संचालित होता है।
इस समय संसार के सभी धर्मों में अध्यात्म की बड़ी विचित्र स्थिति बना रखी है। हर धर्म में एक वर्ग विशेष ने इस पर अपना एकाधिकार जमा रखा है।
हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थ बारम्बार कहते हैं, अपने आपको पहचानो। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, यह जाने बिना प्रत्यक्षानुभूति और साक्षात्कार असम्भव है।
‘मंत्र विद्या’ हमारे देश में आदिकाल से चली आ रही है। शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति के सिद्धांत पर ही हमारे ऋषियों ने मन्त्रों की रचना की है। शब्दब्रह्म से परब्रह्म की प्राप्ति का हमारे दर्शन का सिद्धांत पूर्णरूप से सत्य है।
भौतिक विज्ञान की वर्तमान प्रगति ने यथार्थवाद एवं प्रत्यक्षवाद को जितनी तेजी से उकसाया है, आत्मा, परमात्मा, परलोक, पुनर्जन्म एवं कर्म फल जैसे भारतीय दर्शन को उतना ही अमान्य भी किया है।
संसार एक बहुत ही विचित्र पहेली है। परमसत्ता ने अपनी त्रिगुणमयी माया के द्वारा ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि कर्ता -भोक्ता में कोई भी अन्तर न होते हुए, अन्तर नजर आ रहा है।
आध्यात्मिक आराधना का समय, मनुष्य के जीवन में युवा अवस्था से प्रारम्भ होता है। विद्यार्थी के विद्याध्ययन तक के आखिरी दो तीन सालों में शिक्षा के साथ-साथ, इस क्षेत्र का ज्ञान भी प्राप्त करना अति आवश्यक है।
भगवान् ने गीता के 17वें अध्याय में तीन प्रकार के लोगों की व्याख्या करते हुए कहा है : -
इस समय 'धर्म' सम्पूर्ण विश्व से लोप हो चुका है। विश्व के सभी धर्मों के धर्माचार्य चीख-चीखकर कह रहे हैं-हमारे धर्म में हिंसा का कोई स्थान नहीं है।
हमारे कई संतों ने ईश्वर के नाम की महिमा की है। अपनी-अपनी अनुभूति के अनुसार सभी ने उस परमसत्ता के नाम की महिमा का गुणगान किया है।
फोबिया एक ऐसा रोग है, जिसका उपचार भौतिक विज्ञान अभी तक बिल्कुल नहीं ढूढ सका है। इसके कारण मनुष्य को अकारण भय लगता है। मेरे एक शिष्य को यह रोग हो गया था।
संसार के प्राणियों की उत्पत्ति का कारण नर और मादा शक्तियाँ ही हैं। दोनों के सहयोग से ही आज जो संसार हम देख रहे हैं, उसकी रचना हुई है। दोनों के मिलाप बिना यह कार्य सम्भव नहीं है।
हिन्दू दर्शन में जिस प्रकार मनुष्य शरीर को ही सर्वोत्तम मंदिर कहा गया है, उसी प्रकार बाइबल में भी यूहन्ना 2:21 में यीशु ने कहा था -
बाइबल एक भविष्यवाणियों का ग्रन्थं है। इसमें सृष्टि उत्पत्ति से लेकर मनुष्य के पूर्ण विकास तक की भविष्यवाणियाँ है। बाइबल की सभी भविष्यवाणियाँ बहुत ही आश्चर्य पूर्ण ढंग से भौतिक जगत् में पूर्ण सत्य प्रमाणित हो रही हैं।
भारत में शासक वर्ग ने जब तक संतों के आदेश के अनुसार शासन किया, उस समय देश हर प्रकार से समृद्धशाली रहा। ज्यों-ज्यों सत्ता पक्ष ने संतों के आदेश की अवहेलना करनी प्रारम्भ की, उनकी गिरावट प्रारम्भ हो गई।
निश्चित रूप से भारत तामसिक शक्तियों से पूर्ण रूप से जकड़ा हुआ है। जिस प्रकार गज (हाथी) समुद्र में डूबने लगा था, उसी प्रकार भारत अन्धकार में डूब रहा है।
कालचक्र अबाध गति से निरन्तर चलता ही रहता है। संसार की हर वस्तु परिवर्तनशील है। शक्ति संतुलन ही शान्ति का द्योतक है। असंतुलन ही अशान्ति और दुःखों का कारण है।
युग परिवर्तन का सम्बन्ध सम्पूर्ण संसार से है। पृथ्वी के किसी भाग विशेष के चेतन होने से इसका सम्बन्ध नहीं है। ईश्वरीय सत्ता के अवतरण के बिना 'युग परिवर्तन' असम्भव है। आदि काल से ऐसा होता चला आया है।
क्रम-विकास में अगला कदम जो मनुष्य को एक उच्चतर और विशालतर चेतना में उठा ले जायेगा और उन समस्याओं का हल करना प्रारम्भ कर देगा, जिन समस्याओं ने मनुष्य को तभी से हैरान और परेशान कर रखा है, जब से उसने वैयक्तिक पूर्णता और पूर्ण समाज के विषय में सोचना-विचारना शुरू किया था।
इस युग में सत्संग को मानव समझ ही नहीं पा रहा है। कई लोग रात भर जागते रह कर भजन कीर्तन करने को सत्संग कहते हैं, कई कथा, उपदेश आदि में सम्मिलित होने को सत्संग कहते हैं।
श्रीकृष्ण ने उपर्युक्त तीनों वृत्तियों (काम, क्रोध तथा लोभ) को नरक का द्वार कहा है। भगवान ने ऐसी आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों की व्याख्या करते हुए कहा है :
विष्णु पुराण स्पष्ट कहता है कि कलियुग में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व तथा वैश्यत्व का पूर्ण रूप से पतन हो जाता है। एक मात्र शूद्रत्व का साम्राज्य रह जाता है। यह तत्त्व अपने गुण-धर्म से संसार के सभी जीवों का संचालन कर रहा है।
मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के माध्यम से, प्रभु जो कुछ करवाने जा रहे हैं, वह भारी अचम्भे की बात है। जो कुछ मेरे माध्यम से होने जा रहा है, उसके बारे में संसार के आम व्यक्ति के सामने अगर मैं बताने लगूं तो मैं निश्चित तौर पर पूर्ण रूप से पागल घोषित कर दिया जाऊँगा।
21वीं शताब्दी में भारत की संसार में क्या स्थिति होगी, इसको लेकर सत्ता पक्ष और विरोधी पक्ष में काफी छींटाकसी चल रही है। सभी लोगों का ध्यान मात्र वैज्ञानिक उन्नति पर है।
ईसाइयों की प्रथम सेंट जॉन द्वारा लिखी "जीवन का मार्ग" सन् 1984 में अनायास पढ़ने को मिली। परन्तु बाइबिल में वर्णित बातों की प्रत्यक्षानुभूतियाँ तथा साक्षात्कार बहुत पहले से प्रारम्भ हो गये थे।
प्रत्यक्षानुभूति या साक्षात्कार की बात आज कल के कोई धर्माचार्य करते ही नहीं। ईश्वर के नाम की महिमा तो खूब करते हैं। तर्क शास्त्र और शब्द जाल के आधार पर ईश्वर की नित्य नई व्याख्या करके लोगों को बौद्धिक दृष्टि से नित्य नया व्यायाम करवाते रहते हैं।
सनातन धर्म के सर्वोत्तम ग्रंथ गीता में भगवान् ने पुनर्जन्म की स्पष्ट व्याख्या करते हुए कहा है-
शान्ति और आनन्द मनुष्य को हृदय से प्राप्त होता है। भौतिक संसाधनों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्तर और बाह्य में जब तक पूर्ण सामंजस्य पैदा नहीं होगा, संसार के मानव को सच्ची शान्ति और आनन्द मिलना असम्भव है।
मैं देख रहा हूँ, इस युग के मानव जब कबीर और नानक की 'नाम अमल' और 'नाम खुमारी' की बात सुनते हैं, या पढ़ते हैं तो उन्हें इस बात पर बिलकुल ही विश्वास नहीं होता। अपने ज्ञान के अनुसार वे इस बात को ईश्वर के लिए श्रद्धा से काम में लिए हुए अतिशयोक्ति अलंकार के अतिरिक्त कुछ भी मानने को तैयार नहीं।
तीसरा विश्व युद्ध हिंसक और अहिंसक वृत्तियों के बीच लड़ा जाएगा। पिछले दोनों विश्व युद्ध हिंसक और अहिंसक वृत्तियों के बीच लड़े गए थे। उस समय भी हिंसक नाजियों का पतन हुआ था।
मैं जब अपने पूरे जीवन पर नजर डालता हूँ तो पाता हूँ कि मैं एक अबोध बालक की तरह समुद्र के किनारे सीपियाँ, समुद्री घोंघों की हड्डियाँ ही चुनता रहा।
कालचक्र अबाध गति से निरन्तर चलता ही रहता है। यही कारण है कि संसार की हर वस्तु में, क्षण-क्षण में परिवर्तन हो रहा है।
हम देख रहे हैं, हर धर्म में ईश्वर के प्रति निराशा और विमुखता इस समय चरम सीमा तक पहुँच चुकी है। संसार के सभी धर्मों के लोगों ने एक प्रकार से धर्मगुरुओं से विद्रोह कर दिया है।
युग परिवर्तन का संबंध सम्पूर्ण मानव जाति के पूर्ण विकास से है। वैदिक दर्शन के अनुसार दसवें अवतार के अवतरित होकर अन्तर्धान होने के साथ ही कलियुग का अंत होकर सत्ययुग प्रारम्भ हो जाएगा।
जैनी इच्छाओं का निरोध 'बहिर्मुखी कर्मकाण्ड' से करना चाहते हैं, जो कि असंभव कार्य है। यह कार्य आंतरिक शक्ति के चेतन होने से ही संभव है।
यीशु ‘स्त्री का पुत्र’ था और पुनरागमन ‘पुरुष के पुत्र’ के रूप में होगा।
3 जनवरी 1988 को मैं भौतिक रूप से अनाथ हो गया। उस दिन मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया।
संसार भर के प्रायः सभी धर्म इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि शब्द से ही सर्वभूतों की उत्पत्ति हुई है।
भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में अर्जुन को युग-युग में स्वयं प्रकट होने का स्पष्ट संकेत किया है।
इस समय संसार के सभी धर्मों में एक वर्ग विशेष अपने आप को धर्म का ठेकेदार घोषित कर बैठा है।
इतिहास साक्षी है, इस भूमण्डल पर दो जातियों- हिन्दू और यहूदी पर पिछले लम्बे समय से घोर अत्याचार हो रहे हैं।
युग परिवर्तन प्रकृति का अटल सिद्धान्त है। जब सत्य-युग नहीं रहा, त्रेता-युग नहीं रहा, द्वापर-युग नहीं रहा, तब एक चरण का छोटा सा कलियुग कैसे रह सकेगा?
बाइबल के अनुसार जो सहायक प्रकट होकर शक्तिपात-दीक्षा (Baptized with the Holy Ghost) देगा, वह सम्पूर्ण विश्व की सभी जातियों को देगा।
कलियुग के गुणधर्म के कारण, आज विश्व भर के अध्यात्म-जगत् से सत्य प्रायः लोप हो गया है।
आज विश्व में जो भीषण नरसंहार हो रहा है उसका आध्यात्मिक कारण है, पार्थिव चेतना में उस परमतत्त्व का अवतरित हो जाना।
इस युग में, संसार में अध्यात्मवाद की जितनी दुर्गति हो रही है पहले शायद ही कभी हुई है।
'मोक्ष' शब्द इस कलियुग में मात्र एक काल्पनिक स्थिति का सूचक है।
मैं प्रारम्भ में ही कह चुका हूँ कि जब तब मनुष्य शरीर-रूपी ग्रन्थ को पढ़ने का दिव्य विज्ञान संसार में प्रकट नहीं होगा, विश्व में शांति असम्भव है।
कालचक्र अनादिकाल से अबाध गति से चलता आया है और चलता रहेगा। युग परिवर्तन प्रकृति का अटल सिद्धान्त है।
मैं संकोचवश संसार के सामने प्रकट होने में कुछ झिझक रहा था। परन्तु उस परमसत्ता ने भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से मुझे अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए मजबूर कर दिया।
आज का मानव किसी ऐसी थोथी बात में विश्वास नहीं करता, जिससे कोई परिणाम न मिले। वैज्ञानिक उपलब्धियों ने इस युग के मानव को बहुत जाग्रत कर दिया है। मानव तत्काल परिणाम की माँग करता है।
संत मत के अनुसार भी यह सारा संसार मात्र ईश्वर का ही विस्तार है। विभिन् स्वरूपों में मात्र उसी पूर्ण सत्ता की शक्ति कार्य कर रही है। हमारा भौतिक विज्ञान भी मानता है कि सूक्ष्म से स्थूल की उत्पत्ति होती है अतः साकार जगत की उत्पत्ति का कारण निराकार शक्ति ही है।
इस युग में आध्यात्मिक सत्संग का सही अर्थ प्रायः लुप्त हो चला है। भजन, कीर्तन, कथा, उपदेश आदि सत्संग के कई प्रकार, इस समय संसार में प्रचलित हैं। सत्संग का सीधा साधा अर्थ है, सत्य का साथ करना। केवल ईश्वर ही सत्य है बाकी दृश्य जगत् सारा नाशवान है।
संसार एक ही परमसत्ता का विस्तार है, इस सम्बन्ध में गीता के 13वें अध्याय में भगवान ने कहा है -
इस समय जितनी भी आराधना की विधियाँ प्रचलित हैं प्रायः सभी में शरीर को कष्ट देने की प्रक्रिया सम्मिलित है। भयंकर गर्मी में और भयंकर सर्दी में शरीर को कष्ट देना, इसके अलावा अनेकों ऐसी आराधनाएँ प्रचलित हैं जिनके द्वारा जीवात्मा को भारी कष्ट दिया जाता है।
एक ही सत्ता संसार में विभिन्न रूपों में प्रकट हो रही है। भगवान् कृष्ण ने गीता के 14 वें अध्याय में स्पष्ट करते हुए कहा है-
वास्तव में आज संसार के लोग जिनको हिन्दू कह कर सम्बोधित करते हैं, वे लोग वास्तव में वेदान्ति हैं। स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार हिन्दू कोई धर्म नहीं है; यह सिन्धु का मात्र अपभ्रंश है। वास्तव में वेदों को मानने वाले वेदान्ति लोगों को ही आज संसार में ‘हिन्दु’ कह कर सम्बोधित करते हैं।
संसार में आज तक भौतिक और आध्यात्मिक जगत में जो प्रगति हुई है वह मात्र सजीव और चेतन सत्ता के कारण ही सम्भव हुई है; निर्जीव और अचेतन स्वयं में भला-बुरा कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है। सजीव सत्ता अपनी इच्छा के अनुसार इनका उपयोग जैसा चाहे कर सकती है।